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क्या ईश्वर सर्वव्यापी है ?

Pal Patel

हम आज तक मानते आये है की ईश्वर सर्वव्यापी है। हम समझते है की वो फूलो में है, पत्तो में है, पेड़-पौधे में है, यहाँ तक हर एक मनुष्य में भी है। पर क्या ये सच है ? क्या सचमे ईश्वर कण कण में बेस हुए है। या सच्चाई कुछ और है ?


देखो भक्ति में हम कहते आये है की "है पतित पवन आओ और आ करके हमे इस दुःख की दुनिया से छुड़ाओ "। तो हम भगवन को पुकारते की यहाँ आओ और आकर के हमे िश दुःख की दुनिया से छुड़ाओ"। तो हम भगवन को पुकारते है की यहाँ आओ - तो आओ ऐसा क्यों बोलते है ? कभी सोचा। अगर भगवन कण कण में है तो तो फिर यहाँ आने का क्यों कहते है ? तो जरूर वो कण कण में नहीं बल्कि कही और रहता होगा जहा से वो हमारे पुकारने पर आता है। इसके आलावा जब भी हम ईश्वर को आड़ करते है तब हमारी नजर ऊपर आसमान की तरफ जाती है और हम कहते भी है की भगवन वह ऊपर रहता है। तो वो वहा रहता तो फिर वह कण कण में कैसे हो सकता है ? ये सोचने वाली बात है ना। दोनों में से एक हो सकता है, दोनों तो नहीं हो सकता ना।


जब बात ईश्वर के सर्वव्यापी होने की आये तब एक बात पर जरूर ध्यान देना चाहिए - देखो ईश्वर जो है उनके बारे में हम सब को समाज है की वो प्रेम के सागर है, आती दयालु है, संपूर्ण निर्विकारी, अहिंसक है, निर्मल है। तो जब ईश्वर इतने अच्छे है और कण कण में बसते है तो आज जो दुनिया में इतने crimes हो रहे है, प्राकृतिक आपदाए बढ़ रही है, पशु - पंखी हिंशक हो गए है वो कैसे हो सकता है ? सोचने वाली बात है ना। आकर प्रकृति में ईश्वर है तो उसे शांत होना चाहिए। मनुष्यो में भी ईश्वर हो तो उनमे भी क्रूरता नहीं होनी चाहिए, आपस में मनुष्य जो लड़ते ज़गड़ते रहते है वो भी नहीं होना चाहिए। तो ये भी सिद्ध करती है की ईश्वर सर्वव्यापी नहीं है।


इसके आलावा हमे जीवन में कभी कोई मुश्किल आती है, दुःख आता है तो हम मंदिरो में जाते है। तो मंदिर में जाते वक्त हमारे अंदर के ईश्वर कहा गए। अगर हमारे अंदर ही ईश्वर है तो मंदिरो में जाने की क्या दरकार ? खुदकी ही पूजा कर लेनी चाहिए ना ? तो वो तो हम नहीं करते। दूसरी बात ये भी की अगर प्रत्येक मनुष्यो में भगवन है तो वो मंदिर में जाकर खुदके ही सामने हाथ थोड़ी फैलाएगा ?और मंदिर में जाकर खुद ही खुद को तो नहीं कहेंगे ना की "है पतित पावन आओ और इस दुःख की दुनिया से छुड़ाओ"। तो ये भी सिद्ध करता है की ईश्वर सर्वव्यापी नहीं है।


गीता में भी श्लोक है

"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।"

जिसमे भगवन कहते है की भारत में जब अति धर्म ग्लानि का समय होता है तब में आता हु। तो ईश्वर अगर कण कण में है, हर एक मनुष्य में है तो सबसे पहले तो धर्म ग्लानि होनी ही नहीं चाहिए। और फिर वो कहते है की में आता हु तो जरूर कही और रहते होंगे, जहा से वो आते है। अगर कण कण में भगवन हो तो वे में आता हु वैसा तो नहीं कहेंगे ना। तो ये भी सिद्ध करता है की भगवन कण कण में नहीं है। वे कही और रहते है जहा से वे धरती पर आते है।


अब ये तो हमने समजा की ईश्वर सर्वव्यापी नहीं है, पर हमे इसके साथ साथ ये भी समझना पड़े की ये सर्वव्यापी की भ्रान्ति आयी कहा से ? तो मानो कोई भगवन का बहुत बड़ा भक्त है। ये भक्त भगवन से अथाह प्रेम करता है की उसको उठते - बैठते, कहते -पीते, सोते - जागते, बस भगवन भगवन याद पड़ता है। अभी ऐसे भक्त कहेंगे की जहा देखो वह भगवन ही भगवन है। ऐसे भक्त की कही हुई ये बात का अर्थ हमने निकल दिया के भगवन सर्वव्यापी है। परन्तु वास्तव वो भक्त के कहने का मतलब था उसके दिल और दिमाग में भगवन की याद इतनी छायी हुई थी की उसे हर वक्त भगवन ही याद आता रहता था। अगर वो फूलों को देखत तो फूलों की कोमलता उसे कोमल भगवन की याद दिलाती, अगर किसी व्यक्ति को मिले तो सामने वाले व्यक्ति का कोई एक गुण, उस गुणों के भंडार भगवन की याद दिलाता। इस रीती उस भक्त को हर एक चीज़, हर एक व्यक्ति, प्रकृति, पसु, पंखी, सब कुछ किसीना किसी तरीके से उसे भगवन याद दिलाता वो भक्त ने कह दिया की हर जगह भगवन ही भगवन ह। तो इसका अर्थ हुआ की ऐसे भक्तो का मन निरंतर भगवन को याद करता रहता है। और हमने उस भगवन की निरंतर याद को भगवन का सर्वव्यापी होना समज लिया।


इसके आलावा जब हमारे ऋषि मुनियो द्वारा शास्त्र लिखे गए थे तब वे जानते थे की जैसे जैसे समय आगे बढ़ता जायेगा तैसे तैसे पापाचार बढ़ता जायेगा। टॉपअपचार को रोकने के लिए उन्होंने लिख दिया के हे मनुष्य तुम उस भगवन का ही अंश हो, या उसका अंश तुजमे है, तो उस अंश का मान रखते हुए कोई विकर्म ना करना। अभी हम जो साडी आत्माए है जो इस मनुष्य तन में आयी हुई है; वो हम आत्माए उसी भगवान् की संताने है और इशलिये कहा जाता है की हम उनके अंश है। जैसे हम कहते हम हमरे पिता के अंश है। लेकिन उसका अर्थ ये तो नहीं होना की हमारे पिता हममे बास्ते है। नहीं ना। इसका अर्थ होता है उनका डीएनए हममे है। वैसे ही भगवन के पास जो सारी शक्तिया और गुण है वो हम आत्माओ में भी है। इस रीते से कहा जाता है की उनका अंश हममे है। अंश माना उनकी शक्तिया और गुण। तो ऋषि मुनियो का कहने का भी अर्थ यही था। और उन्होंने एहि समझने की कोशिश करि थी की मनुष्य आत्माओ तुम उसी भगवन की संताने हो इसलिए कोई विकर्म कर अपने पिता का अपमान ना करना। और प्रकृति के बारे जो कहा गया था वो ये था की प्रकृति भी उसी भगवान् की रचना है तो उसे भी हानि नहीं पहुंचना। तो वास्तविक बात ये थी और हम समाज बैठे की ईश्वर सर्वव्यापी है।


तो देखो ये सारी बाते अगर हम गौर से पढ़े और उस पर चिंतन करे तो हमे समज आएगा की ईश्वर सर्वव्यापी नहीं है। ईश्वर कही और रहते है जहा से वे आते है हम मनुष्यो को फिरसे पावन और श्रेष्ट बनाने। और वो कही और से आते है इसीलिए हम उन्हें पुकारते रहते है की है पतित पवन आओ।





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